पुरातन हिन्दू जीवन पद्धति में आश्रम व्यवस्था का महत्त्व, आधुनिक युग में इसकी उपयोगिता और ‘प्रयास’ के व्यवसाय दर्शन से इसका संबंध

पुरातन हिदू जीवन आश्रम पद्धति से शासित था। इसके अनुसार मानव जीवन 100 वर्ष का माना गया था और उसे 25-25 वर्ष के चार काल खण्डों, जिनकों आश्रम कहा गया, में विभाजित किया गया था। इन आश्रमों को क्रमशः ब्रह्मचर्य (सफल जीवनयापन के लिए आवश्यक विद्याओं और कलाओं के अर्जन का समय), गृहस्थ (अपने परिवार के भरण-पोषण का समय), वानप्रस्थ (परिवार एवं संबंधों से अपने लगाव को क्रमशः कम करने का समय) तथा सन्यास (सभी पारिवारिक एवं सामाजिक बंधनों से लगाव मुक्त होकर जीवन के अंतिम चरण का यापन करने का समय) कहा गया। इन चार आश्रमों का मौलिक उद्देश्य एवं व्यवहारिक अर्थ निम्न थें।

(Iअ) ब्रह्मचर्य आश्रम: इस आश्रम का उद्देश्य विवाह के उपरांत अपने परिवार का उचित भरण-पोषण करने के साथ-साथ अपनी सभी सामाजिक, राजनैतिक एवं राष्ट्रीय जिम्मेदारियों का सम्यक निर्वाह करने के लिए आवश्यक शिक्षा, तकनीक एवं कला-कौशल आदि अर्जित करना था और यह कार्य विवाह के पूर्व किया जाना था। दूसरे शब्दों में iइस आश्रम का मूल उद्देश्य गृहस्थ एवं उसके बाद वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम की जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के लिए आवश्यक एक मजबूत आधार तैयार करना था ताकि जीवन को पूरी सफलता एवं आनंद के साथ जिया जा सके। यह आश्रम 25 वर्ष की आयु तक ही माना जाता था। यदि कोई व्यक्ति is ज्ञानार्जन एवं कला–कौशल प्राप्त करने की इस अति मूल्यवान isअवधि का समुचित उपयोग स्वयं के सशक्तिकरण हेतु करने में असफल रहता था तो वह अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहता था। अतः जीवन के इसis आश्रम के एक-एक क्षण का सदुपयोग सभी द्वारा करना आवश्यक था। क्या हमारे बच्चें आज ऐसा कर पा रहे हैं?

(ब) गृहस्थ आश्रम: isइस आश्रम का उद्देश्य वैवाहिक संबंध में बंधना एवं अपने परिवार जिसमे पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ, माता-पिता एवं दादी-दादी आदि शामिल हैं की सभी जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों का उचित तरीके से निर्वहन करने के साथ-साथ अपने गाँव, नियोक्ता, समाज एवं राष्ट के प्रति अपके कर्तव्यों का भी सम्यक निर्वहन करना होता था।  isइस आश्रम की अवधि 25 वर्ष की आयु से लेकर 50 वर्ष तक की आयु तक होती थी। अतः लगभग 25 वर्षों की यह कार्य अवधि जीवन की सबसे अधिक उत्पादक अवधि मानी जाती थी और इस अवधि की प्रभावशीलता ही व्यक्ति के व्यक्तिगत, पारिवारिक, नौकरी या पेशे की सफलता का मापदंड थी। क्या हम इसके प्रति सजग हैं?

(स) वानप्रस्थ आश्रम: इस आश्रम का उद्देश्य अपने परिवार के दैनिक कार्यों से अपने लगाव एवं मोह में क्रमशः कमी लाकर अपने को मानसिक रूप से अलग कर लेना था और 75 वर्ष तक जाते-जाते is इस प्रकार के सभी लगावों को लगभग शून्य कर देना था ताकि सन्यास की स्थिति आते आते व्यक्ति का जीवन पूरी तरह परिवार और सगे सम्बन्धियों के मोह से पूरी तरह मुक्त हो जाए। इस आश्रम का आरम्भ 50 वर्ष की आयु से होकर 75 वर्ष की उम्र तक होता था। वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ मानव बस्ती छोड़कर वन की तरफ प्रस्थान करना होता है। यह कार्य सबसे कठिन माना जाता था क्योकि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने पद एवं अधिकार का अपनी अगली पीढ़ी के लिए स्वयं त्याग करके उसके द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार रहना और अन्य सभी परिवारजनों एवं सगे सम्बन्धियों से अपना लगाव कम करना या समाप्त करना सबसे कठिन होता है। साथ ही यह भी कटु सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति अपने पुत्रों के लिए अपने पारिवारिक अधिकार नहीं छोड़ता हैं और उनपर अपना वर्चस्व हमेशा बनाए रखना चाहता है तो वह उनका आदर एवं सम्मान खो देता है andऔर वें बलात उससे उसके वर्तमान अधिकार छीन सकतें हैं और उसे अपनी बची हुई जिन्दगी अपने परिवारजनों के स्नेह के बिना एक तिरस्कार के वातावरण में व्यतीत करनी पड़ सकती है। अतः हिन्दू पुरातन जीवन व्यवस्था के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं ही अपना पद एवं अधिकार छोड़कर वन की तरफ प्रस्थान कर जातें थें और धीरे-धीरे एक अधिकारविहीन एवं निर्लिप्त जीवन जीने की कला सीख जातें थें। एक आयु के बाद अपने वर्तमान पारिवारिक अधिकारों का त्याग करके अपने परिवार की शक्ति-संघर्ष की कटु राजनीति से स्वयं को दूर रखकर अपने परिवार एवं समाज में अपना सम्मान सुरक्षित रखने का यह एक व्यावहारिक तरीका था। अतः वानप्रस्थ आश्रम अत्यंत महत्वपूर्ण आश्रम है जिसके महत्त्व को अधिकाँश लोग समझना नहीं चाहते हैं और मोहवश कष्ट उठाते हैं। आज कई परिवार इस समस्या से जूझ रहें है।

(द) सन्यास आश्रम: इस आश्रम का उद्देश्य अपने परिवार के दैनिक कार्यों में बिना कोई हस्तक्षेप किये एक पूर्णतया मोहरहित जीवन जीना है। यह जीवन से बैराग्य की एक स्थिति होती है। यह जीवन का अंतिम चरण एवं जीवन के सूर्यास्त का समय होता है। यह 75 वर्ष की आयु से आरम्भ होकर मृत्यु के समय तक होता है। आज के समय में बहुत कम व्यक्ति 75 वर्ष की आयु तक जिन्दा रह पाते हैं अतः उनके जीवन में संन्यास आश्रम का आरम्भ ही नही हो पाता हैं। यह भी तथ्य है कि मृत्यु, जो हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इस भौतिक शरीर को छोड़कर आगे की यात्रा पर जाने की प्रक्रिया है, ऐसे व्यक्ति के लिए काफी कष्टकर हो जाती है जो अपने परिवार जनों, अन्य सगे संबंधियों एवं अन्य भौतिक वस्तुओं से मजबूत मानसिक जुड़ाव रखता है और इन्हें छोड़कर जाना ही नहीं जाना चाहता है। अतः उसके प्राण बड़े कष्ट से छूटते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति यह मानकर कि सभी सांसारिक संबंध क्षणभंगुर हैं, इनसे अपना लगाव न्यूनतम या लगभग समाप्त कर देता है वह एक शांतिपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतः यदि कोई व्यक्ति 75 वर्ष से कम आयु में ही किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो गया हो और किसी भी समय उसकी मृत्यु संभव है तो ऐसी स्थिति में उसे भी संन्यास आश्रम के सिधांत का पालन करते हुए सभी सांसारिक संबंधों एवं भौतिक वस्तुओं से अपना लगाव पूर्णतया समाप्त करके एक बैरागी जीवन जीना आरम्भ कर देना चाहिए ताकि यदि मृत्यु आये हो वह शांतिपूर्ण हो और यदि कोई रोग है तो सांसारिक संबंधों एवं वस्तुओं से अति मोह के कारण पैदा होने वाले तनावों में कमी आने से कारण उसमे भी शीघ्र आराम मिल सके। अतः संन्यास आश्रम का अपना मनोवैज्ञानिक महत्त्व है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि पुरातन हिन्दू संस्कृति में आश्रम व्यवस्था जीवन का लम्बा अनुभव प्राप्त करने के बाद और काफी सोच समझ कर स्थापित की गई थी।

वर्तमान युग में आश्रम व्यवस्था की उपयोगिता  

हिन्दू संस्कृति की पुरातन आश्रम व्यवस्था की उपयोगिता वर्तमान युग की परिवर्तित आवश्यकताओं के सन्दर्भ में जांची और परखी जानी चाहिए। क्या यह व्यवस्था आज के युग में भी उपयोगी है? क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली, नौकरियों, पेशों एवं सेवानिवृति के बाद भी कार्य या पेशे को जारी रखने की संभावनाओं के सन्दर्भ में इसमें किसी परिवर्तन की आवश्यकता है?

आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं भी यह स्वीकार करता है कि व्यक्ति की आयु में वृध्दि के साथ उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में भी एक सीमा तक तो वृद्धि होती है परन्तु एक आयु के बाद एक शिखर पर पहुच कर उसमें क्रमशः ह्रास होने लगता है। यह जरुर है कि अनुभव में वृद्धि के साथ उसकी भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता क्रमशः विकसित जाती है जो समाज के लिए अन्यंत उपयोगी है। शारीरिक शक्ति एवं मशीनी बुद्धिमत्ता का शिखर किस व्यक्ति को किस उम्र में प्राप्त होगा या इन शक्तिओं के वृद्धि तथा शिखर पर पहुचने के बाद उनके ह्रास की दर क्या होगी यह व्यक्ति की जीवन शैली और उसके खान-पान की गुणवत्ता आदि पर निर्भर करता है। अतः एक उद्देश्यपरक एवं आनंद एवं शांति से पूर्ण जीवन जीने के लिए मानव शक्ति एवं बुद्धिमत्ता का समुचित उपयोग उचित समय पर हो जाना चाहिए। भारतीय आश्रम व्यवस्था मानव जीवन की इसी विशेष आवश्यकता को ध्यान में रखकर हिन्दू समाज के व्यवस्थापकों द्वारा स्थापित की गई थी। आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुसार पुरातन आश्रम प्रणाली में वांछित परिवर्तन एवं इसकी उपयोगिता निम्न है।

  • मानव जीवन का प्रथम चरण, यानी ब्रह्मचर्य आश्रम जिसकी अवधि 25 वर्ष है, में शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का तीव्र विकास होता है। अतः यह अवधि अच्छी आदतें एवं नई भाषाएँ, विषय, तकनीक एवं जीवनोपयोगी कला-कौशल सीखकर भविष्य के जीवन के लिए एक मजबूत आधारशीला बनाने के लिए सबसे उपयुक्त होती है। परन्तु आज की तकनीकी एवं पेशेवर शिक्षा को 25 वर्ष में पूर्ण कर पाना कठिन होता है और मेडिकल और प्रोद्योगिकी के संबंधित विशेषज्ञ उपाधियाँ प्राप्त करने में 30 वर्ष या कभी कभी उससे भी अधिक समय लग सकता है। अतः वर्तमान शैक्षणिक परिद्रश्य ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि 25 वर्ष के स्थान पर 30 या 35 वर्ष तक बढ़ सकती है। चिकित्सा विज्ञान द्वारा यह पुष्ट होता है कि संतानोपत्ति के लिए सबसे उत्पादक अवधि 18 से 25 वर्ष की होती है और इसमें काफी देर करने से महिला एवं पुरुष की प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और संतान शारीरिक विकलांगता से ग्रषित हो सकती है। अतः हमें अपने बच्चों का विवाह 25 वर्ष के पूर्व अवश्य कर देना चाहिए और संतान आदि कि जिम्मेदारियों से निपट कर आगे KIकी शिक्षा आदि ग्रहण करनी चाहिए। देखने एवं कहने में यह सुझाव कुछ अटपटा लग सकता है परंतु अन्यंत व्यावहारिक है।
  • जीवन का द्वितीय चरण यानी गृहस्थ आश्रम जो पहले 25 वर्ष से 50 वर्ष तक का होता था, अपने परिवार के भरण-पोषण के सन्दर्भ में किसी भी व्यक्ति के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है। आज अधिकांश नौकरियों में सेवानिवृति की आयु 60 वर्ष हो गई है। न्यायाधीशों की सेवानिवृति तो इससे अधिक आयु और 65 वर्ष तक में होती है। कुछ लोग तो सेवानिवृति के बाद भी पुनः नियुक्ति लेकर फिर से कार्य करने लगते है और सरकार भी 70 वर्ष की आयु तक पुन:नियुक्ति के आधार पर कार्य करने देती है। निजी क्षेत्र में तो लोग सेवा निवृति के बाद भी सलाहकार के रूप में काफी उम्र तक कार्य करते हैं। अतः आज लोग नियमित कार्य को छोड़ने को तैयार ही नहीं होतें हैं। यह तथ्य है कि MAANSIमानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति कार्य करते रह सकता है लेकिन अपने देश में विभिन्न प्रकार की नौकरियों की सीमित संख्या और प्रतेक वर्ष शिक्षण संस्थाओं से भारी संख्या में पढ़कर निकलने वाले नवयुवकों के लिए नौकरियों की आवश्यकता को देखते हुए हमें सेवानिवृति की आयु कम करनी चाहिए और यदि यह संभव न भी हों तो कम से कम सेवा निवृति से बाद किसी को भी पुनः नियुक्ति नहीं देनी चाहिए। isइस विषय पर चर्चा भी नहीं होनी चाहिये। अतः गृहस्थ आश्रम 25 या 35 से 60 वर्ष तक होना चाहिए। कुछ लोगों को सेवा निवृति के बाद पुनः नियुक्ति देना कार्य की आवश्यकता कम संबंधित व्यक्ति में व्यक्तिगत विश्वास या उसकी जी हुजूरी की प्रवृति ज्यादा होत्ती है जो लोकहित में नहीं है।

 

जीवन का यह चरण अपने परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए आवश्यक धन कमाने के लिए अपनी रुचि के अनुसार कोई नौकरी करने या कोई पेशा अपनाने या कोई उद्यम करने के लिए है। यह समय अपने सेवानिवृति के बाद का जीवन शांति एवं आनंद से व्यतीत करने के लिए पर्याप्त बचत करने एवं संसाधन एकत्र करने के लिए भी है। यह जीवन का व्यस्ततम चरण होता है जिसका पूरा सदुपयोग होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति ने इस अवधि का उचित उपयोग करके वित्तीय स्वावलंबन नहीं प्राप्त किया तो उसके जीवन की गुणवत्ता खराब हो जाती है। यदि सेवानिवृति के बाद व्यक्ति स्वस्थ है और उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए आवश्यक आय पेंशन एवं निवेश आदि से हो रही है तो उसे निशुल्क समाज सेवा करनी चाहिए इससे समाज और देश को लाभ मिलेगा और उसे भी आत्म-संतुष्टि प्राप्त होती।

 

इस अवधि में अपनी आय में से उचित बचत भी अवश्य करना चाहिए ताकि वह सेवा निवृति के बाद काम आ सके। इस समय विभिन्न प्रकार की पेंशन योजनाये हैं जिनमें निवेश करके उचित मासिक पेंशन की व्यवस्था की जा सकती है। इसी प्रकार समय रहते उचित राशि का स्वास्थ्य बींमा एवं जीवन बीमा करवाना भी आवश्यक है ताकि आकस्मिक बीमारी या मृत्यु आदि की स्थिति में परिवार की वित्तीय स्थिति सुरक्षित रहे। कुछ लोग अपनी वर्तमान कमाई का अपव्यय करतें हैं और भविष्य के लिए बचत तथा पेंशन आदि की व्यवस्था नहीं करतें हैं।

  • हमारे जीवन का तृतीय चरण यानी वानप्रस्थ आश्रम जो 60 वर्ष से आरम्भ होकर 75 वर्ष तक चलता है अपने पारिवारिक अधिकारों का क्रमशः त्याग करके एक वैरागी जीवन जीना है। आज के समय में घर बार और सारे नाते रिश्तें छोड़कर जंगल चले जाना अव्यावहारिक है। यह चरण अपने वर्तमान अधिकार अपने पुत्र पुत्रियों के लिए छोड़ना सीखने के लिए है। व्यक्ति अपने परिवार में रहते हुए भी सभी संबंधों के मोह से दूर रह सकता है। यह तभी संभव है जब वह दैनिक पारिवारिक निर्णयों में हस्तक्षेप न करें और यदि उससे कोई राय मागी जाय तो अपने अनुभव के आधार पर राय तो दे लेकिन अंतिम निर्णय अपने बच्चों पर छोड़ दे और उनसे अपनी राय मनवाने के लिए जिद न करे। यदि उसकी राय न भी मागी जाय तो इसका बुरा न माने। चूँकि सेवानिवृत व्यक्ति अपनी सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है और अपने खर्चों के लिए उसके पास कुछ बचत रहती है और बीमा आदि के माध्यम से चिकित्सा आदि आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है अतः उसे अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए उचित समय अवश्य देना चाहिए और यदि इसके बाद यदि कुछ अतिरिक्त समय है तो उसे समाज सेवा में लगाना चाहिए ताकि उसे कुछ अच्छा कर पाने का संतोष मिले, समाज को भी उसके अनुभव का लाभ प्राप्त हो और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढे। इस आयु में व्यक्ति के पास ज्ञान और अनुभव का भंडार होता है जिसका उपयोग समाज कल्याण के लिए होना चाहिए। यह एक अमूल्य संसाधन हैं जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। इस समय इसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है।
  • व्यक्ति के जीवन का चतुर्थ चरण यानी सन्यास आश्रम उसके द्वारा 75 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के बाद शुरू होता था और उसकी मृत्यु होने तक रहता था। आज के युग में किसी भी व्यक्ति के लिए अपना घर-बार छोड़कर जंगल में जाकर अपनी मृत्यु के आने की प्रतीक्षा करना अव्यावहारिक होगा। इसका परिवर्तित रूप यह हो सकता है कि वह अपने परिवार के साथ तो रहे परन्तु अपने परिवार के दैनिक निर्णयों से अपने को पूर्णतया तठस्थ रखे। अपने बच्चों द्वारा कोई सलाह मागने पर ही उसे दे और यदि उसकी राय न मानी जाय तो बिल्कुल बुरा न माने। यह आयु का ऐसा चरण होता हैं कि जिसमें शरीर विभिन्न प्रकार के रोगों का शिकार हो सकता है अतः is काफी समय व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने पर व्यतीत करना चाहिए और अपने खान-पान एवं व्यायाम आदि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। चूँकि इस आश्रम में व्यक्ति अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से लगभग मुक्त हो जाता है पूर्व में की गई बचत एवं उचित स्वास्थ्य बीमा आदि के कारण आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र हो जाता है अतः अपने अतिरिक्त समय का उपयोग उसे समाज कल्याण से सम्बंधित कार्यों के लोए करना चाहिए ताकि उसे कुछ आय और सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ आत्म संतुष्टि भी मिल सके। इस उम्र तक व्यक्ति काफी ज्ञानी एवं अनुभवी हो जाता है जिसका सदुपयोग समाज के हित में होना चाहिए। यह एक ऐसा संसाधन है जिसकी अनदेखी न करके उचित उपयोग होना चाहिए। परन्तु शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण वह मुख्यतया दिमागी सेवा अच्छी तरह कर सकता है। नवयुवकों का व्यक्तिगत मार्गदर्शन करना, उन्हें अपने पुराने अनुभव से लाभान्वित करना या पर्वेक्षण कार्य वह सह्जता से कर सकता है।

‘प्रयास’ द्वारा अपनाए गए अंशकालीन गतिविधि भागीदारी प्रणाली से भारतीय आश्रम व्यवस्था का सम्बन्ध

60 वर्ष की आयु के ऊपर के ऐसे व्यक्ति जो अबतक अपनी अधिकाँश पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण कर चुके हों और जिनके पास आय के एक या एक से अधिक निश्चित श्रोत, जिसमें उनके जीवन की क्रियाशील अवधि में की गयी बचत भी शामिल हैं, जीवनयापन हेतु उपलब्ध हों, नाम मात्र की आय के बदले अपने अतिरिक्त समय का दान ‘प्रयास’ की विभिन्न गतिविधियों के संचालन एवं प्रबंधन ‘प्रयास’ के गतिविधि भागीदार (समूह नेता या क्षेत्र प्रबंधक या विक्रय प्रतिनिधि या विशेषज्ञ) के रूप में करने के लिए कर सकतें हैं। इसके अतिरिक्त यदि किसी कार्यरत व्यक्ति (गृहस्थ) के पास भी अपनी पारिवारिक और अपनी नौकरी या पेशे  की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद यदि कुछ समय बचता है जिसका उपयोग वह समाज कल्याण के कार्य से लिए करना चाहता हैं तो वह उसका दान ‘प्रयास’ को उसकी गतिविधियों के संचालन एवं प्रवंधन हेतु कर सकता है। इस प्रकार का समयदान ‘प्रयास’ को अपनी विभिन्न सेवाओं के शुल्क  ‘बिना लाभ हानि’ एवं ‘अंतर-सहायता’ के सिद्धांतों का उपयोग करके  उपभोगकर्ताओं की भुगतान क्षमता के अनुसार  निर्धारित करने  की सुविधा प्रदान करता है। इससे गरीब से गरीब व्यक्ति भी ‘प्रयास’ की सेवाओं का लाभ उठा सकता है।

इस प्रकार ‘प्रयास’ के व्यवसाय का आर्थिक दर्शन सामाजिक रूप से जागरूक व्यक्तित्यों द्वारा अपने अतिरिक्त समय के दान की अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमता है। ऐसे व्यक्ति ‘गतिविधि भागीदार’ कहें जाते हैं और ‘प्रयास’ के तकनीकी एवं पेशेवर मार्गदर्शन में स्व-उद्यमी के रूप में इसकी विभिन गतिविधियों का संचालन एवं प्रबंधन करते हैं। ये लोग ‘प्रयास’ के पूर्ण-कालीन कर्मचारी नहीं होते है और निश्चित मासिक वेतन नही पाते हैं। स्वयम द्वारा दिये गए समयदान एवं उठाई गई जिम्मेदारियों के एवज में इन्हें इनके माध्यम से ‘प्रयास’ को प्राप्त सकल आय का एक निश्चित हिस्सा आय के रूप में प्राप्त होता है। क्रियाकलाप सहभागी स्वयं द्वारा किये जा रहे कार्यों के स्वभाव के अनुसार समूह नेता या क्षेत्र प्रबंधक या व्यक्तित्व विकास मार्गदर्शक या विक्रय प्रतिनिधि या विशेषज्ञ कहलाते हैं। इनके कार्यों का विवरण अन्य स्थान पर उपलब्ध है। अतः ‘प्रयास’ की कार्य व्यवस्था हिन्दू आश्रम व्यवस्था पर आधारित है और वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के व्यक्तियों के खाली समय का सदुपयोग सुनिश्चित करके व्यक्तित्व के समग्र विकास में सहयोग प्रदान करती है।