व्यक्तित्व विकास
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व्यक्तित्व विकास क्या होता है? इसके क्या सोपान होतें हैं?
किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी माता के गर्भ में आने के बाद से ही बनना या रूप लेना आरम्भ हो जाता है और जन्म के बाद उसके पूरे जीवन काल में उसकी आयु के साथ-साथ जीवन की परिस्थितियों के अनुसार विकसित या परिवर्तित होता रहता है। अतः यह गर्भ से श्मशान तक चलने वाली प्रक्रियां है।
व्यक्तित्व मनोविज्ञान के एक प्रसिद्ध फ़्रांसिसी विद्वान् जीन पाइगेट द्वारा प्रतिपादित ‘संचेतना विकास के सिद्धांत’ के अनुसार किसी भी बच्चे की आयु के अनुसार उसके व्यक्तित्व के विकास के मुख्यतः चार चरण होतें हैं। प्रथम चरण दो वर्ष तक की आयु तक होता है और उसे ‘सेंसोरीमोटर’ (इन्द्रियागामक) चरण कहते है। द्वितीय चरण, जो 2 से 7 वर्ष तक की आयु की अवधि में क्रियाशील रहता है, को ‘संक्रियात्मक-पूर्व’ चरण करते है । तृतीय चरण, जो 7 से 11 वर्ष तक की आयु तक रहता है, को ‘मूर्त-संक्रियात्मक’ चरण कहतें हैं। चतुर्थ चरण, जिसे ‘औपचारिक संक्रियात्मक’ कहतें है, 11 वर्ष से 15 वर्ष तक रहता है।
रसियन मनोवैज्ञानिक लेव एस व्याएगोतस्की बाल-विकास के सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत को प्रतिपादित करतें हैं। उनके अनुसार किसी बच्चें के व्यक्तित्व विकास में सामाजिक अन्तःक्रिया, भाषा एवं संस्कृति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। भाषा वाह्य जगत से संपर्क बनाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम होती है। इस सन्दर्भ में वें सामाजिक वाक्, निजी वाक् एवं शांत वाक् की बात करतें हैं। एक सीमा के बाद प्रतेक बच्चे को किसी न किसी व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती है। सहायता देने वाला व्यक्ति संबंधित क्षेत्र में उससे ज्यादा ज्ञान रखता है भले उसकी आयु कम oहो। ऐसे लोगों में बच्चें के माता-पिता, इसकी देखभाल करने वाला व्यक्ति, मित्र आदि शामिल हैं। पाईगेट विकास प्रक्रिया एवं परिणाम को सारर्भौमिक मानतें है जबकि व्याएगोतस्की के अनुसार बच्चे के व्यक्तित्व के विकास पर उसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का काफी प्रभाव पड़ता है।
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक लारेंस kolbergकोलबर्ग बच्चे के नैतिक विकास के सिद्दांत का प्रतिपादन करतें हैं। उनके अनुसार किसी भी द्वन्द या दुविधा वाली स्थिति में सही दिशा का निर्णय लेने में नैतिक मापदंड सहायक सिद्ध होतें है और उच्च मानसिक स्थिति में समाज द्वारा निर्धारित किये जातें है। किसी भी उचित या अनुचित निर्णय के पीछे का तर्क व्यक्ति की अपनी मानसिक परिपक्वता एवं सामाजिक मानकों पर निर्भर करता है। नैतिक विकास तीन चरण होतें हैं : पूर्व-पारम्परिक, पारम्परिक एवं उत्तर पारंपरिक। प्रतेक चरण में दो दो स्तर होतें हैं। पूर्व-पारम्परिक चरण की नैतिकता 9 वर्ष तक के बच्चे में होती है। इस चरण के पहले स्तर की नैतिकता का कारण मात्र अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन न करने की स्थिति में दंड पाने का भय मात्र होता है जिसके आधार पर बच्चा किसी कार्य को गलत या सही मानता है। इस चरण की नैतिकता के दूसरे स्तर पर बच्चा अपने व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रखकर सही या गलत का निर्णय लेता है। जिस कार्य के उसे ईनाम मिलता है उसे वह उचित मानता है। इस निर्णय के केद्र में उसका अपना निजी स्वार्थ होता है। नैतिकता के दूसरे यानि पारंपरिक चरण के पहले स्तर पर नैतिकता का निर्णय दूसरों की दृष्टि में अपनी अच्छी या बुरी छवि (अच्छा बच्चा या बुरा बच्चा या अच्छा नंबर) के आधार पर किया जाता है। इस स्तर पर सामाजिक स्वीकार्यता या अपेक्षाओं या सम्बन्धों पर खरा उतरने की इच्छा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। इस चरण के द्वितीय स्तर पर नैतिकता का मतलब सामाजिक मापदंडों पर खरा उतरना एवं क़ानून-व्यवस्था का सम्मान करना और सामाजिक परम्पराओं एवं सरकारी नियमों या कानूनों का पालन करना होता है। इनके उलंघन पर सामाजिक वहिष्कार या दंड का प्रावधान होता है। नैतिक विकास के तृतीय चरण यानि उत्तर-पारंपरिक चरण के पहले स्तर पर सामाजिक अनुबंध एवं व्यक्तिगत अधिकार नैतिकता के आधार पर जातें है। अतः सामाजिक एवं कानून-व्यवस्था के साथ-साथ मानव अधिकार एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का महत्व भी बढ़ जाता है और दोनों के बीच संतुलन बैठाने की मांग भी उठने लगती है। उदाहरण स्वरुप सामन्यतया किसी भी चौराहे लाल बत्ती को पार करना यातायात नियमों का उलंघन होता होता है लेकिन यदि कोई गंभीर रोगी एम्बुलेंस या किसी अन्य वाहन से अस्पताल जा रहा हो तो उसका लाल बत्ती को पार करता उचित होगा क्योकि यहाँ पर व्यक्तिगत जरुरत सामाजिक नियम या व्यवस्था से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। नैतिक विकास का अंतिम स्तर उत्तर-पारंपरिक चरण का दूसरा स्तर है जहां सारर्भौमिक नैतिकता का प्रश्न पैदा हो जाता है और वह कानून व्यवस्था से काफी ऊपर होती है। इस सन्दर्भ में kolbergकोलबुर्ग का यह अनुमान था कि मुश्किल से 10 से 15 प्रतिशत लोगों में उत्तर-पारंपरिक चरण की नैतिकता विकसित हो पाती है। पारम्परिक चरण तक की नैतिकता तो सामान्यतया अधिकाँश समाजों में मिल जाती है परन्तु मानवाधिकार एवं सारर्भौमिक नैतिकता काफी कम मिलती है।
उपरोक्त व्यक्तित्व विकास के सिद्धांत ही मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक या नैतिक बुद्धिमता के मूल श्रोत हैं जिसकी बात एक वयस्क के व्यक्तित्व के विकास के संदर्भ में की जाती है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके जन्मजात स्वभाव और समय के साथ बदलते उसके परिवेश के बीच व्यवहार की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप क्रमशः विकसित या परिवर्तित होता रहता है और धीरे धीरे उसका एक विशिष्ट चरित्र बन जाता है। बच्चे का मूल स्वभाव आनुवांशिक कारकों के बनता है और वह उसी के अनुसार अपने वाह्य जगत को देखता और समझता है। कुछ आनुवांशिक तत्व मष्तिष्क के तंतुओं को प्रभावित एवं नियंत्रित करते है जिसके कारण व्यवहार नियंत्रित होता है।
व्यक्तित्व का .दूसरा महत्वपूर्ण अंश बच्चे के विशिष्ट परिवेश के प्रभाव से बदलने वाला भाग होता है। अधिकाँश मनोवैज्ञानिक इससे सहमत हैं कि व्यक्ति का आनुवांशिक स्वभाव और उसके परिवेश का संयुक्त प्रभाव उसके व्यक्तित्व के विकास की गति को सबसे अधिक प्रभावित करता है। कभी कभी व्यक्ति का मूल चरित्र जो आनुवांशिक कारकों पर निर्भर करता है, को उसका स्वभाव भी कहते है।
एक आयु प्राप्त कर लेने के बाद प्रतेक व्यक्ति अपने जीवन के उस सोपान की आवश्यकताओं को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के उद्देश्य से अपने व्यक्तित्व को विकसित करना चाहता है और इसके लिए प्रभावी तरीकों को ढ़ूढ़ता है। प्रतेक व्यक्ति की अपनी कुछ विशेष आदतें, गुण, क्षमताएं एवं आचार-विचार होतें हैं जो उसे अन्य व्यक्तियों की तुलना में विशिष्ट एवं अनूठा बनाते हैं। इसके बावजूद प्रतेक व्यक्ति अपनी शिक्षा, नौकरी या पेशे में उत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए अपने व्यक्तित्व में वांछित सुधार लाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। यदि आप सोचते हैं कि प्रभावी व्यक्तित्व का तात्पर्य सुन्दर एवं आकर्षक शरीर एवं पहनावे एवं भाव-भंगिमा से है तो आप बिलकुल गलत हैं। व्यक्तित्व एक काफी वृहद् अर्थ वाली अवधारणा है जिसमे शारीरिक, मानसिक एवं परा-मानसिक क्षमताओं का समावेश होता है। किसी भी क्षेत्र में सफलता के सन्दर्भ में व्यक्ति की मानसिक, संवेदनात्मक एवं नैतिक क्षमताएं उसकी शारीरिक क्षमताओं से ज्यादा महत्व रखती हैं। हम किसी भी क्षेत्र को लें, चाहे वह शिक्षा हो या साक्षात्कार हो या दैनिक कार्य का स्थल हो या उद्यमिता हो,, हमारी सफलता में हमारे व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण होता है कि आप विभिन्न चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना कैसे करते हैं या सफलता प्राप्त करने के बाद आप का व्यवहार कैसा होता है। अब प्रश्न यह है कि हम अपने व्यक्तित्व का विकास किस प्रकार करें कि हम अपने पसंद का भविष्य बना सकें? क्या हम अपने जीवन के मालिक या नियंत्रक बन सकतें हैं? यदि हाँ तो कैसे?
अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों एवं समस्याओं का सामना आप कैसे करतें हैं? आप की प्रतिक्रिया कैसी होती है? आप का व्यवहार कैसा होता है? यह आप के भूतकाल की लम्बी अवधि में प्राप्त अपने अनुभवों, उनसे बनी धारणाओं और विचारों पर निर्भर करता है। अतः अपने आचार-विचार में सकारात्मक परिवर्तन के लिए अबतक बनी अपनी अवधारणाओं में आवश्यक सुधार करना पड़ेगा। यदि यह सुधार या परिवर्तन स्व-विश्लेषण, मूल्यांकन एवं स्वेच्छा से विकसित सही समझ के माध्यम से हो तो यह परिवर्तन दीर्घकालीन और स्थाई होगा।
व्यक्तित्व विकास एक ऐसा नियोजित प्रक्रिया है जो व्यक्तित्व के उन गुणों, विशेषताओं एवं क्षमताओं को विकसित करती है जो जीवन में समय समय पर पैदा होने वाली कठिन से कठिन एवं जटिल से जटिल परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने, उनसे पैदा होने वाली समस्याओं का सम्यक समाधान करने और बिना किसी तनाव से अपनी रूचि के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करके में सहायक होती हैं। व्यक्ति का वाह्य व्यक्तित्व तो उसकी शारीरिक बनावट, भेषभूषा एवं हाव-भाव से प्रदर्शित होता है लेकिन इसका उसकी सफलता से कोई खास संबंध नही होता है। वास्तविक व्यक्तित्व का निर्धारण विभिन्न आतंरिक तत्वों जैसे व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का स्तर, व्यवहार, सोच-विचार, शिक्षा, मौलिक जीवन मूल्यों एवं अन्य विशेषताओं का पता लगाकर किया जाता है। आप का आतंरिक व्यक्तित्व आप को परिभाषित करता है कि आप कौन हैं?आप विभिन्न परिस्थितियों में कैसी प्रतिक्रिया देतें हैं या व्यवहार करतें हैं? आप और अन्य लोगों के व्यवहार का परिणाम क्या होता है
विभिन्न परिस्थितियों में आप की प्रतिक्रिया उन परिस्थितियों से सम्बंधित विचारों एवं सिद्धांतों के बारे आप के ज्ञान, भूतकाल में अर्जित आप का अनुभव और उससे बनी अवधारणा, अपनी शक्तियों और कमजोरियों के बारे में आप की अपनी समझ और स्वेच्छा से अपनी कमजोरियों और गलत धारणाओं को दूर करने के लिए अपनी आंतरिक शक्ति को विकसित करने की आप की इच्छा पर निर्भर करती है।
‘प्रयास फाउंडेशन कोर्स’ प्रतिभागियों को अपने दैनिक जीवन के मौलिक एवं जमीनी मुद्दों पर विचारमंथन करने के लिए एक सामूहिक एवं निर्बाध मंच प्रदान करता है और यह प्रक्रिया इन मुद्दों के सभी पहलूओं पर उनकी समझ को बढ़ाती है और सामूहिक चर्चा करके वें आम सहमति बनाते हैं कि सम्बंधित मुद्दों के सन्दर्भ में व्यक्ति का उचित व्यवहार या आचरण क्या होना चाहिए। यदि स्वेच्छा से समूह चर्चा के माध्यम से भूतकालिक अनुभवों से सृजित उनकी अवधारणा एक बार ठीक हो जाती है तो किसी परिस्थिति विशेष के सन्दर्भ में उनके आचार-विचार में सकारात्मक परिवर्तन होने की संभावना काफी बढ़ जायेगी। एक बार व्यक्ति द्वारा किये जा रहे प्रयत्न की गुणवत्ता सुधर जाती है तो कार्य का परिणाम भी अवश्य सुधरेगा चाहे वह क्षेत्र शिक्षा का हो या साक्षात्कार हो या कोई नौकरी या पेशा या उद्यम हो।
जैसा कि ऊपर कहा गया है, व्यक्तित्व विकास एक जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत व्यक्ति द्वारा अपनी कमजोरियों, क्षमताओं, गुणों का आवधिक मूल्याकन किया जाता है और अपने जीवन के उद्देश्य पर गहन विचार करके अपने अन्दर की संभावना को पूरी तरह विकसित किया जाता है। ‘प्रयास फाउंडेशन कोर्स’ एक स्व-उत्प्रेरित, स्व-संचालित एवं स्व-नियंत्रित व्यक्तित्व विकसित करने और दूसरों पर निर्भर रहने की प्रवृति में कमी लाने में सहायता करता है और प्रतिभागी में अपने व्यक्तित्व का सतत विकास कर पाने की क्षमता विकसित हो जाती है और वह समय समय पर आने वाली समस्याओं का समाधान स्वयं ही कर लेता है। इस isप्रकार वह अपने भाग्य का निर्माता एवं नियंत्रक बन जाता है और दूसरों को दोष देना बंद कर देता है। फिर उसे सफल होने से कोई भी नहीं रोक सकता है।